जब देखता हूं भूखे-नंगे
चिथड़ों में लिपटे बच्चों
को
भीख मांगते हुए फटकार खाते
हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं -
बच्चियों से बलात्कार करते
उनका बचपन रौंधते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं -
लड़के की चाह में
भ्रूण हत्या करवाते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं जायदाद के लिए
भाई को भाई का खून बहाते
हुए
मां-बाप को दर-बदर ठोकरें
खाते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं घर में
बहु-बेटियों पर
लोगों को अत्याचार करते
हुए
दहेज के लिए जिंदा जलाते
हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं डिग्री लिए
युवाओं को
नौकरी के लिए गिड़गिड़ाते
हुए
अफसरों को रिश्वत खिलाते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं
भूख से तड़पते गरीब बच्चों
और बूढ़ों को
पार्टियों में लोगों को खाना
फेंकते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
जब देखता हूं बेघर लोगों को
सड़कों की पटरियों पर सोते
हुए
कई लोगों को बिल्डिंगें
बनवाते हुए
तो सोचता हूं-
क्या आदमी की शक्ल का
हर आदमी इंसान होता है।
तो अब मैं पूछता हूं उन लोगों
से
सिवाए अपने तुम्हें कोई
इंसान नजर आता है
अब तो जागो दोस्तों...
इंसान खाली हाथ आया था, खाली
हाथ जाता है।
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