कवियत्री : निर्मल राज
गुडि़या, खिलौने,
चॉकलेट, टॉफी
सब कहाँ हैं माँ?
अब मैं क्यों नहीं
खेल सकती
क्या?
मैं कभी नहीं
खेलूँगी
चुप क्यों हो माँ?
मेरा कसूर ही क्या
है?
जो खेल नहीं सकती
खिलौने से
मैं समझ गई माँ आपकी
पीड़ा
मेरा बचपन छिन गया
जैसे चिडि़या चली गई
कोसों दूर
अपना देश छोड़कर
जो उनकी चहचाहट से
गूँजता था घर-आँगन
खेत खलिहान
मीठी-मीठी धुन में
गुन-गुनाना
मन को हर्षित कर
देती
कहती थी हमसे
चीं-चीं करके कि
एक दिन शिकारी आएगा
खा जाएगा मुझे और
मेरे वंश को
मार डालेगा एक-एक करके
मिटा देगा मेरा
कुल का नामो-निशान
लेकिन मैं फिर आऊँगी
इस जग-संसार में
जीने के लिए
अपना वंश बढ़ाने की
खातिर
लड़ूँगी अपने खातिर
ताकि
मारी न जाऊँ
उस शिकारी के हाथों
से
जिन्दा रहूँगी हक
से
माँ, मुझे भी जीना
है
गौरैया की भाँति
अपने बचपन में खेलने
की
उम्र की खातिर...
लड़ूँगी मैं उन
भेडि़यों से
शिकारियों से...
जो छीन लेते हैं
मासूमों का जीवन
माँ, मैं लड़ूँगी
वीरता और साहस के
साथ
सिर उठाकर
अपनी गरिमा को
बढ़ाकर
ताकि छिन न जाए
हमारा बचपन
हम भी बेटियाँ हैं,
भारत देश की
हमें भी जीने का हक
है
अपने मान-सम्मान के साथ।© सर्वाधिकार सुरक्षित। लेखक की उचित अनुमति के बिना, आप इस रचना का उपयोग नहीं कर सकते।
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